संयुक्त राष्ट्र की एक नई रिपोर्ट बताती है कि धरती पर जैसे-जैसे तापमान बढ़ रहा है उसी रफ़्तार में कार्बनडाइ ऑक्साइड उत्सर्जन घटाने की बात भी ज़ोर पकड़ रही है। ऐसे समय में दुनिया के सबसे प्रभावी पर्यावरण संरक्षक यानि आदिवासी जन, को एक बार फिर नज़रअन्दाज़ किए जाने की भी बात सामने आई है।
आदिवासी जन की स्थिति पर हाल ही में जारी एक रिपोर्ट में असन्तुलन की स्पष्ट स्थिति का जायज़ा लिया गया है। रिपोर्ट में आदिवासी ज्ञान को समझने और उसका सम्मान करने के तरीक़े में एक भारी परिवर्तन लाने का आग्रह किया गया है। इसे “पारम्परिक” या लोकप्रिय कहने के बजाय, वैज्ञानिक एवं तकनीकी ज्ञान के रूप में पुनः प्रस्तुत किए जाने की बात कही गई है।
रिपोर्ट में करती है कि जब तक इन प्रणालियों में बदलाव नहीं आता, जलवायु कार्रवाई में बहिष्करण व विस्थापन के पैटर्न दोहराए जाते रहेंगे, जो लम्बे समय से स्थानीय अधिकारों एवं वैश्विक पर्यावरणीय लक्ष्यों को कमज़ोर करते रहे हैं।
हालाँकि स्थानीय आदिवासी जन, वैश्विक जनसंख्या का केवल छह प्रतिशत हिस्सा हैं, लेकिन यह ग्रह की शेष 80 प्रतिशत जैव विविधता की रक्षा करते हैं। इसके बावजूद, उनके हिस्से में अन्तरराष्ट्रीय जलवायु वित्तपोषण का एक प्रतिशत से भी कम हिस्सा आता है।
हालाँकि दुनिया भर में जलवायु पहलों में महत्वपूर्ण संसाधन आवंटित किए जा रहे हैं, लेकिन उसका एक प्रतिशत से भी कम हिस्सा आदिवासी जन तक पहुँच पाता है।
रिपोर्ट में जलवायु कार्रवाई का एक संयमित मूल्यांकन दिया गया है, जिसमें न केवल उसकी तात्कालिकता की कमी का उल्लेख है, बल्कि न्यायसंगतता में भी कमी बताई गई हैं।
लागू गईं हरित ऊर्जा परियोजनाओं में आदिवासी जन की सहमति के बिना ही बन्द कमरों में नीतिगत निर्णय लिए गए हैं। स्थानीय समुदायों को अधिकतर जलवायु समाधानों से बाहर रखा गया है। जबकि यह लोग न सिर्फ सबसे अधिक प्रभावित होते हैं बल्कि विस्थापित भी होते हैं। इन लोगों को कार्रवाई के लिए संसाधनों से भी वंचित रखा जाता है।
संयुक्त राष्ट्र में आदिवासी मुद्दों पर स्थाई मंच की अध्यक्ष हिंदोउ ओमारौ इब्राहीम ने रिपोर्ट की प्रस्तावना में लिखा है- “हालाँकि हम जलवायु संकट से असमान रूप से प्रभावित हैं, लेकिन हम आदिवासी जन इसके पीड़ित नहीं हैं। हम प्राकृतिक दुनिया के संरक्षक हैं और भावी पीढ़ियों के लिए ग्रह के प्राकृतिक सन्तुलन को बनाए रखने के लिए प्रतिबद्ध हैं।”
संयुक्त राष्ट्र द्वारा पर्यवेक्षित इस रिपोर्ट में, स्थानीय नेताओं, शोधकर्ताओं और विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) से लिए योगदान शामिल किए गए हैं। इसमें विश्व के सात विभिन्न क्षेत्रों के अध्ययन, डेटा और जीवित अनुभव से जुड़े उदाहरण पेश किए गए हैं।
रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि जहाँ दुनिया नवीकरणीय ऊर्जा का भविष्य अपना रही है, कई आदिवासी जन जलवायु साझेदार नहीं हैं, बल्कि इन समाधानों से होने वाली अप्रत्यक्ष क्षति बन रहे हैं।
हिंदोउ ओमारौ इब्राहीम लिखती हैं-“कथित हरित समाधान अक्सर स्थानीय लोगों के सामने जलवायु संकट जितना बड़ा ही संकट प्रस्तुत कर देते हैं।”
रिपोर्ट में आगाह किया गया है कि जब तक इन प्रणालियों में बदलाव नहीं आता, जलवायु कार्रवाई में वहीं बहिष्करण व विस्थापन के पैटर्न दोहराए जाते रहेंगे, जो लम्बे समय से स्थानीय अधिकारों एवं वैश्विक पर्यावरणीय लक्ष्यों को कमज़ोर करते रहे हैं।