लखनऊ की पूर्वी विधानसभा सीट पर तीन दशक पहले कांग्रेस का दबदबा हुआ करता था। यहां के लोगों ने पांच बार पार्टी के प्रत्याशी को अपना नेता चुना, लेकिन पिछले 26 साल से इस सीट पर भगवा (भारतीय जनता पार्टी) का कब्जा है। सात बार से लगातार यहां पर भगवा रंग ही फहरा रहा है। आठवीं बार कब्जा बरकरार रखने लिए भाजपा एक बार फिर ताकत लगाने की तैयारी में है। Lucknow
प्रदेश विधानसभा का पहला चुनाव वर्ष 1951 में हुआ था। उसमें कांग्रेस की पताका फहराई थी।
उस समय चन्दभानु गुप्त ने भारतीय जनसंघ के कृष्ण गोपाल कलंत्री का करारी शिकस्त दी थी लेकिन पांच वर्ष बाद हुए अगले चुनाव में चन्द्रभानु गुप्त को प्रोग्रेसिव सोसलिस्ट पार्टी के त्रिलोकी सिंह से हार का सामना करना पड़ा। वर्ष 1962 में कांग्रेस ने फिर वापसी की।
यहां के लोगों ने किशोरी लाल अग्रवाल को चुनकर विधानसभा पहुंचाया लेकिन इसके बाद हुए दो चुनावों में कांग्रेस को हार का सामना करना पड़ा। वर्ष 1967 में भारतीय जनसंघ के आरएस कपूर व दो साल बाद ही हुए चुनाव में भारतीय क्रांतिदल के बंश गोपाल शुक्ल ने बाजी मारी।
दोनों ही बार कांग्रेस दूसरे स्थान पर रही। वर्ष 1974 में कांग्रेस ने फिर वापसी की और लगातार तीन बार इस सीट पर कब्जा किया। यहां से स्वरूप कुमारी बख्शी 1989 तक विधायक रहीं।
इसके बाद लखनऊ पूर्व की जनता का कांग्रेस से भरोसा ऐसा उठा कि तीन दशक से प्रत्याशी को हार का ही मुंह देखना पड़ रहा है। वर्ष 1989 के चुनाव में मतदाताओं ने जनता दल से चुनाव लड़े रविदास मेहरोत्रा पर भरोसा जाताया। इसके बाद से इस सीट पर भाजपा ने कब्जा जमा लिया।
1991 व 1993 के चुनाव में भगवती प्रसाद शुक्ल यहां से विधायक बने। भाजपा ने वर्ष 1996 में प्रत्याशी बदला और विद्या सागर गुप्त को मैदान में उतारा।
उन्होंने 2007 तक हुए तीन चुनावों में कब्जा बरकरार रखा। वर्ष 2012 के चुनाव में कलराज मिश्र मैदान में आए। उन्होंने अपने निकटम प्रतिद्वंदी सपा की जूही सिंह को 20718 वोटों से पराजित कर दिया।
2014 में कलराज मिश्र के लोकसाभा चुनाव जीतने के बाद इस सीट पर उपचुनाव हुआ। पूर्व सांसद लालजी टंण्डन के पुत्र आशुतोष टंडन टिकट दिया गया। उन्होंने भी सपा की जूही सिंह को 26449 मतों से पराजित कर दिया।
अब एक बार फिर आशुतोष टंडन को भाजपा ने मैदान में उतारा है। सीट पर कब्जा बरकरार रखने के पार्टी पूरा जोर लगाने की तैयारी में है।