नई दिल्ली : वैसे तो कानून की नजर में सबको बराबर माना गया है लेकिन महिला अपराधियों के बारे में सुप्रीम कोर्ट का एक अलग ही फैसला सामने आया है। Women
सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि भारत के संदर्भ में अगर महिला अपराधी के 3 नाबालिग बच्चे हैं तो इस आधार पर उन्हें सजा सुनाने में उदारता बरती जा सकती है।
हालांकि सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी कहा कि दया का यह भाव तब नहीं दिखाया जा सकता जब महिला अपराधी किसी आतंकी समूह का हिस्सा हो।
सुप्रीम कोर्ट ने एक मामले की सुनवाई के दौरान ये बातें कहीं है। यह मामला अगस्त 2000 में हुई एक वारदात से जुड़ा है।
हिमाचल में एक महिला ने 27000 रुपये की लूट में एक पुरुष की मदद की थी। जिस शख्स को लूटा गया उसे बुरी तरह से मारपीट कर हिमाचल के डलहौजी के पास फेंक दिया गया था। महिला को इस मामले में दोषी ठहराया गया जिसकी सजा 10 साल तक की कैद थी।
चंबा ट्रायल कोर्ट ने इस मामले की सुनवाई के दौरान पाया कि महिला 3 बच्चों की मां है। इनमें से 2 बच्चे मानसिक रूप से स्वस्थ नहीं पाए गए।
इसके बाद ट्रायल कोर्ट ने 2003 में महिला को 2 साल की सजा सुनाई। इसके अलावा 6000 रुपये का जुर्माना भी लगाया। 9 सालों बाद हिमाचल हाई कोर्ट ने इस मामले में और भी उदार रुख अपनाया।
हाई कोर्ट ने 2 साल की सजा खत्म करते हुए महिला पर 30 हजार रुपये का जुर्माना लगाया। राज्य सरकार ने इस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील की।
जस्टिस एके सिकरी और अशोक भूषण की बेंच ने भारतीय संदर्भ में महिला अपराधी के प्रति इस तरह की उदारता को जायज माना। हालांकि कोर्ट ने यह भी माना कि जेल की सजा को पुरी तरह खत्म नहीं करना चाहिए था।
जस्टिस सिकरी ने कहा कि जब आईपीसी जजों को सजा देने का विवेक देती है तो अदालत निस्संदेह विस्तारित और कमजोर परिस्थितियों का सम्मान करेगी। बेंच ने दोषी महिला की दो कमजोर परिस्थितियों, एक तो महिला होना और दूसरा 3 बच्चों की मां होना को ध्यान में रखा।
जस्टिस सिकरी ने कहा कि ऐसी परिस्थितियों में बेंच ने पाया कि कोर्ट ने अपने फैसले में जेंडर को एक प्रासंगिक परिस्थिति के रूप में रखा। उन्होंने आगे कहा कि यह हर केस के तथ्यों पर निर्भर करता है कि उसमें उदारता बरतनी है या नहीं।
उन्होंने कहा कि इसे लेकर कोई नियम नहीं बनाया जा सकता। सुप्रीम कोर्ट ने ट्रायल कोर्ट की तरफ से मिली सजा को ही बरकरार रखा।