प्रसिद्ध साहित्यकार विनोद कुमार शुक्ल को साल 2024 के लिए 59वां ज्ञानपीठ पुरस्कार प्रदान किए जाने की घोषणा की गई है। पिछले ही साल साहित्य अकादमी ने उन्हें महत्तर साहित्य अकादमी की सदस्यता से सम्मानित किया था।
भारतीय ज्ञानपीठ की ओर से साझा जानकारी के मुताबिक, शुक्ल को हिंदी साहित्य में उनके अद्वितीय योगदान, सृजनात्मकता और विशिष्ट लेखन शैली के लिए इस सम्मान के वास्ते चुना गया है।
विनोद कुमार शुक्ल हिंदी के 12वें साहित्यकार हैं, जिन्हें यह पुरस्कार प्रदान किया जा रहा है। इसके अलावा शुक्ल छत्तीसगढ़ राज्य के ऐसे पहले लेखक हैं, जिन्हें इस सम्मान से नवाजा जाएगा।
भारत में विनोद कुमार शुक्ल को कविता और उपन्यास लेखन के लिए कई सम्मान मिल चुके हैं। दो साल पहले उन्हें पेन अमरीका ने अंतरराष्ट्रीय ख्याति के लिए नाबोकॉव अवार्ड से भी सम्मानित किया था। वह एशिया के पहले साहित्यकार हैं, जिन्हें इस सम्मान से नवाज़ा गया है।
विनोद कुमार शुक्ल का मानना है कि दूसरी भाषाओं में जैसा लिखा जा रहा है उससे हिंदी का स्तर कम नहीं है। लेकिन ये सच है कि हिंदी की रचनाओं का जितना और जैसा अनुवाद होना चाहिए वैसा नहीं हो रहा। उन्होंने इसे हिंदी के लिए क्षति वाली बात बताया।
विनोद कुमार शुक्ल का जन्म छत्तीसगढ़ के राजनांदगांव में पहली जनवरी 1937 को हुआ।विनोद कुमार शुक्ल पिछले पांच दशकों से भी अधिक समय से लिख रहे हैं। उनका पहला कविता-संग्रह ‘लगभग जयहिंद’ 1971 में प्रकाशित हुआ था।
उनके उपन्यास ‘नौकर की कमीज’, ‘खिलेगा तो देखेंगे’ और ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’ ऐसी रचनाएं हैं, जिन्हें दुनिया भर में सराहा गया है बल्कि कई भाषाओं में इनके अनुवाद भी हुए हैं। इसके अलावा उनके कहानी संग्रह ‘पेड़ पर कमरा’, ‘आदमी की औरत’ और ‘महाविद्यालय’ भी चर्चा में रहे हैं। इसके अलावा उनके लेखन के अंग्रेज़ी अनुवाद भी आ रहे हैं।
बीबीसी को दिए एक इंटरव्यू में ज्ञानपीठ पुरस्कार मिलने की घोषणा पर विनोद कुमार शुक्ल ने कहा- “ज्ञानपीठ पुरस्कार मिलने से मुझे खुशी हुई। मैं अभी भी यह महसूस करता हूं कि मैं क्या कुछ और लिख सकता हूं, उसे लिखूं। मैं यह भी महसूस करता हूं कि मेरे लिखने के लिए अभी बहुत कुछ बचा हुआ है।”
हिंदी के सवाल पर इंटरव्यू में वह कहते हैं- ”हिंदी अपने दम पर आगे बढ़ रही है। इसका जीवन बहुत छोटा क़रीब सौ साल का है। दक्षिण की कई आंचलिक भाषाएं हिंदी से भी पुरानी हैं। एक बात है जब तक राष्ट्रीयता नहीं बनेगी, तब तक आंचलिकता भी नहीं बनेगी। जब तक ठीक-ठीक आंचलिक नहीं होंगे तब तक राष्ट्रीय भी होना मुश्किल है। हमारी राजनीति ने आंचलिकता को भी ख़राब किया है और राष्ट्रीयता को भी ख़राब किया है”।
हिंदी को दबी ज़बान बताते हुए उनका कहना है कि एक दिन इस पर नज़र ज़रूर पड़ेगी मजबूरी में ही। उनका मानना है कि दूसरी भाषाओं में जैसा लिखा जा रहा है उससे हिंदी का स्तर कम नहीं है। लेकिन ये सच है कि हिंदी की रचनाओं का जितना और जैसा अनुवाद होना चाहिए वैसा नहीं हो रहा। उन्होंने इसे हिंदी के लिए क्षति वाली बात बताया।
उनकी गिनती हिंदी के ऐसे साहित्यकारों में की जाती है जिन्होंने साहित्य और भाषा में अपने मुहावरे गढ़े हैं। विनोद कुमार शुक्ल ने ज्ञानपीठ पुरस्कार दिए जाने की घोषणा पर खुशी जताई और कहा कि उन्हें कभी नहीं लगा कि यह पुरस्कार मिलेगा।
बताते चलें कि भारतीय ज्ञानपीठ साहित्य में उत्कृष्ट योगदान के लिए ज्ञानपीठ पुरस्कारप्रदान करता है। इसे भारत का सर्वोच्च साहित्यिक पुरस्कार माना जाता है।