5 सितंबर का दिन शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता है। जानते हैं। आज का दिन शिक्षकों के प्रति सम्मान और आभार व्यक्त करने के लिए समर्पित है। 2024 में शिक्षक दिवस की थीम ‘सतत भविष्य के लिए शिक्षकों को सशक्त बनाना’ है।
भारत के दूसरे राष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन का जन्म 5 सितंबर को हुआ था और एक महान शिक्षक, दार्शनिक, और विचारक के रूप में उन्हें याद करते हुए आज का दिन मनाया जाता है।
आज के विशेष दिन आइए एक झलक डालते हैं उनके जीवन पर-
सर्वपल्ली राधाकृष्णन का जन्म 05 सितम्बर 1888 को एक तेलुगुभाषी ब्राह्मण परिवार में हुआ। ये तमिलनाडु के तिरुवल्लूर जिले मे है। इनकी जन्मस्थली आज भी एक पवित्र तीर्थस्थल के रूप में जानी जाती है।
सर्वपल्ली राधाकृष्णन के पिता राजस्व विभाग में नौकरी करते थे। पाँच भाई तथा एक बहन में राधाकृष्णन दूसरे नंबर पर थे। बड़ा परिवार और कम आय के चलते सभी सदस्य कठिनाई भरा जीवन व्यतीत कर रहे थे।
सर्वपल्ली राधाकृष्णन का बचपन तिरुपति तथा उसके आस पास के धार्मिक वातावरण में बीता। जीवन के प्रथम आठ वर्ष उन्होंने तिरूतनी में गुजारे। धार्मिक प्रवत्ति के होने के बावजूद पिता ने राधाकृष्णन को शिक्षा के लिए तिरूपति की क्रिश्चियन मिशनरी संस्था लुथर्न मिशन स्कूल में भेजा जहाँ इन्होने 1896 से 1900 के मध्य प्रारंभिक शिक्षा ग्रहण की। पिता की आर्थिक स्थिति भी अच्छी नहीं थी। तत्पश्चात वेल्लूर में इन्होने अगले 4 वर्ष शिक्षा प्राप्त की। राधाकृष्णन एक मेधावी छात्र थे और यहाँ से ये आगे की पढ़ाई के लिए मद्रास क्रिश्चियन कॉलेज, मद्रास गए।
सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने दर्शनशास्त्र में मास्टर्स की डिग्री हासिल की। इसके बाद 1918 में इन्हे मैसूर महाविद्यालय में दर्शनशास्त्र के सहायक प्राध्यापक के पद पर काम करने का अवसर मिला। इसके बाद उन्हें इसी कॉलेज में प्राध्यापक बनकर पढ़ाने का अवसर भी मिला। इन्होने अपने शिक्षण काल में बाइबिल को पढ़ा और उसके महत्त्वपूर्ण अंश याद कर डाले। वेदों और उपनिषदों के गहन अध्ययन के साथ उन्होंने हिन्दी और संस्कृत भाषा का भी गहन अध्ययन किया। इसी समय ये स्वामी विवेकानंद से प्रभावित हुए और विवेकानन्द सहित अन्य महान विचारकों को भी बखूबी समझा, जिसका इनके व्यक्तित्व पर गहरा प्रभाव पड़ा।
सर्वपल्ली राधाकृष्णन एक बेहतरीन शिक्षक थे। उन्होंने कभी भी नियमों के दायरों में सिमट कर काम नहीं किया। अपने अध्यापन काल में वह कक्षा में 20 मिनट विलम्ब से आते और दस मिनट पहले ही चले जाते। उनका कहना था कि उन्हें जो व्याख्यान कक्षा में देना होता है उसके लिए 20 मिनट पर्याप्त हैं। इस नियम के बावजूद भी वह विद्यार्थियों के आदरणीय और प्रिय शिक्षक थे।
1903 में 14 वर्ष की आयु में उनका विवाह 10 वर्षीय सिवाकामू के साथ सम्पन्न हुआ। सिवाकामू को तेलुगु भाषा का अच्छा ज्ञान था और अंग्रेज़ी की भी कुछ जानकारी थी। शादी के बाद उन्होंने कला स्नातक की उपाधि प्रथम श्रेणी में प्राप्त करते हुए दर्शन शास्त्र में विशेष योग्यता पाई। इनके परिवार में 1908 में एक पुत्री का जन्म हुआ जिसका नाम सुमित्रा रखा गया। 1909 में इनकी पत्नी ने दर्शन शास्त्र में मास्टर्स पूरा किया।
सर्वपल्ली राधाकृष्णन दर्शन जैसे गम्भीर विषय को बड़े ही सरल ढंग से प्रस्तुत करते जिससे ये लोगों के लिए रोचक बन जाता। उनकी इन्ही विशेषताओं के कारण इनके जन्मदिवस को शिक्षक दिवस के रूप में मनाया गया।
राधाकृष्णन के लिए समूचा विश्व एक विद्यालय था और उनका मानना था कि शिक्षा के माध्यम से ही मानव मस्तिष्क का सदुपयोग संभव है। ईसाई संस्थाओं में अध्ययन करने के कारण राधाकृष्णन को कुछ हिन्दुत्ववादी लोगों की आलोचना सहनी पड़ी। इस आलोचना को चुनौती की तरह स्वीकारते हुए उन्होंने हिन्दू शास्त्रों का गहरा अध्ययन किया। इस तुलनात्मक अध्यन से उन्हें भारतीय संस्कृति, धर्म, ज्ञान तथा उसकी सत्यता को जानने का अवसर मिला, जबकि मिशनरी पढ़ाई ने उन्हें पाश्चात्य पहलू का जानकर बनाया। दर्शन जैसे गम्भीर विषय को वो बड़े ही सरल ढंग से प्रस्तुत करते जिससे ये लोगों के लिए रोचक बन जाता। उनकी इन्ही विशेषताओं के कारण इनके जन्मदिवस को शिक्षक दिवस के रूप में मनाया गया।
स्वतन्त्रता के बाद 1947 से 1949 तक सर्वपल्ली राधाकृष्णन को संविधान निर्मात्री सभा का सदस्य बनाया गया। साथ ही इस समय में इन्होंने विभिन्न विश्वविद्यालयों में चेयरमैन की भूमिका भी निभाई। अखिल भारतीय कांग्रेसजन की इच्छा थी कि सर्वपल्ली राधाकृष्णन गैर राजनीतिक व्यक्ति होने के बावजूद संविधान सभा के सदस्य बनाये जायें। जवाहरलाल नेहरू राधाकृष्णन के संभाषण आयोजन देश की आज़ादी के समय 14 और 15 अगस्त 1947 की मध्य रात्रि में उस समय चाहते थे जब संविधान सभा का ऐतिहासिक सत्र आयोजित हो। ऐसे में राधाकृष्णन के सम्बोधन को रात्रि ठीक 12 बजे समाप्त करने का निर्देश दिया गया और इसके पश्चात पंडित नेहरू के नेतृत्व में संवैधानिक संसद द्वारा शपथ का आयोजन हुआ।
स्वाधीनता के बाद उन्हें विशिष्ट राजदूत के रूप में सोवियत संघ के साथ राजनयिक कार्यों की पूर्ति हेतु चुना गया और इस तरह से ये विजयलक्ष्मी पंडित के उत्तराधिकारी बने। पण्डित नेहरू के इस चुनाव पर कई लोगों को आपत्ति हुई कि एक दर्शनशास्त्री भला राजनयिक सेवा की ज़िम्मेदारी कैसे संभालेगा। मगर अपनी कार्यशैली से सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने साबित कर दिया कि मॉस्को में नियुक्त भारतीय राजनयिकों में वे सबसे बेहतर थे। गैर परम्परावादी राजनयिक होने के कारण देर रात वाली मन्त्रणा में वे रात्रि 10 बजे तक ही शामिल होते थे।
सोवियत संघ से 1952 में वापसी के पश्चात डॉक्टर राधाकृष्णन उपराष्ट्रपति निर्वाचित किये गये। संविधान के अंतर्गत उपराष्ट्रपति हेतु नए पद का सृजन किया गया जिसके लिए पंडित नेहरू ने डाक्टर राधाकृष्णन का चुनाव किया। एक बार फिर से इस चुनाव ने लोगों को हैरान कर दिया कि कांग्रेस पार्टी के किसी राजनीतिज्ञ व्यक्ति के बजाए इन्हे उपराष्ट्रपति बनाने की मंशा का क्या कारण है। मगर सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने बखूबी राज्यसभा में अध्यक्ष का पदभार भी सम्भाला। अपने कार्यकाल के दौरान अपनी प्रतिभाओं और स्वभाव के चलते उन्होंने अपने व्यक्तित्व की शानदार छाप छोड़ी।
डाक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन 1931 से 36 तक आन्ध्र विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर रहे। जॉर्ज पंचम कॉलेज के प्रोफेसर के रूप में कलकत्ता विश्वविद्यालय के अन्तर्गत 1937 से 1941 तक कार्य किया। इसके पश्चात 1936 से 1952 ऑक्सफ़र्ड विश्वविद्यालय में प्राध्यापक रहे। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के चांसलर के रूप में 1939-48 अपनी सेवाएं दीं। 1953 से 1962 तक दिल्ली विश्वविद्यालय के चांसलर बने। युनेस्को में भारतीय प्रतिनिधि के रूप में 1946 में अपनी सेवाएं दीं।
डाक्टर राधाकृष्णन को ब्रिटिश साम्राज्य द्वारा 1931 में ‘सर’ की उपाधि प्रदान की जिसका आज़ादी के बाद उनके लिए कोई औचित्य नहीं था। उपराष्ट्रपति बनने के बाद स्वतन्त्र भारत के प्रथम राष्ट्रपति डाक्टर राजेंद्र प्रसाद ने 1954 में उनकी महान दार्शनिक व शैक्षिक उपलब्धियों के लिये देश का सर्वोच्च अलंकरण भारत रत्न प्रदान किया। 17 अप्रैल 1975 को 86 वर्ष की आयु में इनका निधन हुआ।