कूचा-ए-मीर अनीस। कूचा तो हुआ मकानों के बीच से गुज़रती गली मगर कूचा-ए-मीर अनीस उस राह-गुज़र का नाम है जो लखनऊ के अलावा भी पूरी दुनिया में अक़ीदत की निगाह से जाना जाता है। इसी कूचा-ए-मीर अनीस के अनीस हैं मीर बब्बर अली अनीस। इन्हे मर्सिया-निगारी का बादशाह कहा गया है।
मर्सिया यानी मजलिस में पढ़े जाने वाले वह शोक गीत जो कर्बला की दास्तान बयान करते हैं। मीर की मर्सिया निगारी ने उर्दू साहित्य में सबसे ऊंचा स्थान पाया है। उनकी शोहरत का आलम यह है कि आज भी उनके अकीदतमंद दुनिया के किसी भी हिस्से से जब लखनऊ आते हैं तो उनकी आरामगाह की ज़ियारत को लाज़िमी समझते हैं। यहां आने वालों में कुछ ऐसा ही सिलसिला उन स्कॉलर्स का भी है जो मीर अनीस या उनके कलाम पर शोध कर रहे हैं।
मीर 1803 में फ़ैज़ाबाद के एक अदबी घराने में पैदा हुए मगर उम्र पुराने लखनऊ के उस हवेलीनुमा मकान में गुज़ारी, जिसकी पुश्त तो अकबर के दौर में बने अकबरी दरवाज़ा की तरफ थी मगर इसके नक़्क़ाशी वाले आलिशान दरवाज़े से निकलने वाली राह-गुज़र नवाबी तामीर के दीदार कराती है।
जो मीर के चाहने वाले हैं और जिन्होंने मीर, उनके कलाम और इस कूचे की अहमियत को जाना है, वह मीर के हमख़याल होकर यही कहेंगे कि या तो हुज़ूर इलाक़े का हुलिया सुधार दें या फिर इसका नाम बदल दें।
मीर का दौर, वह ज़माना था जब ग़ाज़ी उद्दीन हैदर, अमजद अली शाह और वाजिद अली शाह अवध के आख़िरी नवाबों के नाम से अपनी हाज़िरी दर्ज करा रहे थे। अनीस के मर्सिया और उनकी मर्सिया गोई इस दौर में अपनी शोहरत के सबसे ऊंचे पायदान पर थी।
मीर अनीस 1874 में इस दुनिया से रुखसत हुए और इसी इलाक़े में घर से कुछ दूरी पर सुपुर्द-ए-ख़ाक किए गए। पहली दिसंबर 2023 को जब उनकी 150वीं बरसी मनाई गई तो मालूम हुआ कि उनके घर और हुसैनाबाद इमामबाड़े से लेकर यूरोप और अमरीका में बसे उनके चाहे वालों ने उन्हें याद किया और पूरी शिद्दत से याद किया।
हालांकि मीर के कलाम का ज़िक्र किए बिना मुद्दे पर आना ज़्यादती है और उनके कलाम का ज़िक्र इतना मुख़्तसर नहीं कि चंद अल्फ़ाज़ में समेटा जा सके। सो पेश है उनकी एक रुबाई-
गुलशन में फिरूं कि सैर-ए-सहरा देखूं
या मादन ओ कोह ओ दश्त ओ दरिया देखूं
हर जा तिरी क़ुदरत के हैं लाखों जलवे
हैरान हूं दो आंखों से क्या-क्या देखूं
मीर की इस रुबाई का ज़िक्र जिस हवाले से किया है, दरअसल वह ही ‘आज’ के कूचा-ए-मीर अनीस की दास्तान से जुड़ी है। या कहें कि मीर आज होते तो दुनिया इस बेमिसाल रुबाई से महरूम होती। जिस गली को मीर की याद में कूचा-ए-मीर अनीस नाम दिया गया है, मीर उस गली से गुज़रने से कतराते। बहुत ही मजबूरी में अगर गुज़रना पड़ता तो एक हाथ से अपने पायंचे टखने से ऊपर करने की कोशिश करते और दूसरे हाथ से नाक पर रुमाल रखते। वह आंखें, जिनसे इस गली में रहकर मीर ने क़ुदरत के जलवों का दीदार किया था, उन्हें महज़ इतना खोलते कि पैर समतल ज़मीन पर रख सकें और कीचड़ या कचरे से भी बच जाएं।
मीर ने अपने कलाम के ज़रिए हमेशा ज़ुल्म के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई है। इसी कूचे से गुजरने की उधेड़-बुन में वह अल्लाह से यह शिकवा भी कर रहे होते कि ‘या तो शहर के म्युनिसिपल कार्पोरेशन में मेरी सुनवाई करा दे या मुझे दो और हाथ दे दे ताकि एक से अपना सामान पकड़ सकूं और एक में छड़ी थाम कर गली में मौजूद कुत्तों और छतों पर कूदते खूंखार बंदरों से अपनी हिफाज़त कर सकूं।’
यह कूचा अगर मीर अनीस का हवाला न भी दें तो भी इन रास्तों को शिकवा करने का हक़ है। अपना दर्द साझा करने के लिए इन गलियों के पास शिकायत की एक और दलील भी है। नवाबों के इस शहर की गलियों ने बड़ा सुनहरा दौर देखा है। वह भी तब जब न एलडीए था और न नगर निगम। उन्नीसवीं सदी के तीसरे चौथे दशक में जब अवध की सल्तनत नवाब नासिरउद्दीन हैदर के हाथों में थी तो उनका बड़ा चौकस निज़ाम हुआ करता था। इतिहासकार लिखते हैं कि नवाब साहब हर सुबह अपने इंजीनियरों की एक टीम लेकर गश्त पर निकलते और कही किसी किस्म का अतिक्रमण देखते तो उस निर्माण को उसी वक़्त न सिर्फ खुदवा देते बल्कि उनकी टीम उसे बराबर करने तक वहां अपनी ड्यूटी देती थी। अब इस दलील के बाद तो इन गलियों को हक़ है कि वह नवाबी ठाठ दिखाए मगर ज़माने के सितम ने इनकी आवाज़ को घोंट दिया है। कभी-कभी तो लगता है कि अंधेरी गलियों की सीलन दरअसल सीलन नहीं इनके आंसू हैं जो यह अपनी बदहाली पर बहाने को मजबूर हैं।
मीर जिस ज़माने में दुनिया से रुख़सत हुए थे, उस वक़्त तक लखनऊ के नक़्शे पर ज़बान, ज़ायक़ा,तहज़ीब और नफ़ासत की ऐसी मुहर लग चुकी थी जिसने सारी दुनिया में इस शहर को इन खूबियों के हवाले से मशहूर कर दिया।
फिर ये हुआ कि मीर नहीं रहे, उनकी नज़र नहीं रही, वह क़ुदरत भी रूठ सी गई बस उनका कलाम रह गया। बिलकुल वैसे ही जैसे शहर रह गया, उसकी नफ़ासत नहीं रही। मीर के शहर का ढांचा भी बदलता गया और लब-ओ-लहजा भी आहिस्ता-आहिस्ता गुम होने लगा।
मीर भी फैज़ाबाद से आए थे। उन्होंने अवध पर नवाबों की और फिर अंग्रेज़ों की सरपरस्ती देखी थी। न वह यहां से हिजरत करने वालों को रोकते और न ही यहां आकर आबाद होने वालों को। मगर गटर में तब्दील होते इस इलाक़े पर घुटते रहते और हर सुबह क़तार में खड़े होकर सूबे के सद्र से इल्तिजा करते कि, ‘हुज़ूर! सबसे पहले कूचा-ए-मीर अनीस का नाम बदलने की ज़हमत करें। बड़ी मेहरबानी होगी।’
मुमकिन है कि मीर की हस्ती से लाइल्म लोगों को यह उनकी मुंहज़ोरी लगे। कुछ उन्हें एहसानफरामोश कहते और यह भी कहते कि बिजली, पानी से लेकर सवारी तक मयस्सर है मगर न जाने कि किस मोह से मजबूर हैं।
मगर जो मीर के चाहने वाले हैं और जिन्होंने मीर, उनके कलाम और इस कूचे की अहमियत को जाना है, वह मीर के हमख़याल होकर यही कहेंगे कि या तो हुज़ूर इलाक़े का हुलिया सुधार दें या फिर इसका नाम बदल दें।
तो अब चलते-चलते एक मुआयना इस इलाक़े का भी कर लिया जाए। कूचा-ए-मीर अनीस की लोकेशन को गूगल मैप की बदौलत अगर देखें तो पाते हैं कि महज़ दो किलोमीटर की परिधि में अमृत लाल नागर का मकान है, सुल्तानुलमदारिस की वह इमारत है जहां से कैफ़ी आज़मी ने अपनी ज़िंदगी की शायद पहली बग़ावत की थी। अदबिस्तान है। और वही हकीमों वाली गली जहां से मुल्क की आज़ादी की जद्दोजहद शुरू हुई और इसी गली में ‘गुज़िश्ता लखनऊ’ लिख कर इस शहर की दास्तान सुनाने वाले अब्दुल हलीम शरर की क़ब्र है। इन सबके बीच बसा, और मीर अनीस के नाम पर आबाद यह कूचा जो अब चारों तरफ से बजबजाती और सीली बदबूदार गलियों की आगोश में आ चुका है। गली की ऊबड़-खाबड़ हालत देखकर लगता है कि इसे तोड़ने की कोशिश हर कोई करता है मगर इस टूट-फूट को बनाने के लिए कभी कोई हाथ आगे नहीं बढ़ा। अपनी सरहदों से आगे बढ़ आए मकानों ने गलियों को कितना तंग किया है यह तो एलडीए के उन रिकॉर्ड से ही पता चलेगा जिनमे इन घरों के बीच गुज़रती गली की लम्बाई चौड़ाई की सही नाप दर्ज होगी।
यहां से हिजरत करने वालों ने जिन बिल्डर्स को अपने घर बेचे हैं उन्होंने हर किस्म के रूल-रेगुलेशन को दरकिनार करते हुए जो कई मंज़िला फ्लैट बनाए हैं उनमें दरवाज़े के बजाए आमने सामने बने छज्जों और खिड़कियों के ज़रिए दाख़िल होना आसान है। ज़मीन के एक छोटे से टुकड़े पर जब चौड़ाई में घर बनाना मुमकिन न हुआ तो उसे ऊंचाई में उठाते गए। इन कसे-फंसे मकानों के बनाने में धूप हवा पानी से ज़्यादा इस बात का ख़याल रखा गया कि खरीदारों की गिनती ज़्यादा से ज़्यादा हो। क्योंकि इन घरों के अंदर जगह नहीं है तो कूलर और ऐसी का बोझ भी कूचे यानी राह-गुज़र के हिस्से में आया है। उस पर सितम यह कि यहां आबाद आबादी अपने घरों का कूड़ा बालकनी से या दरवाज़े से बाहर फेंकना पसंद करती है। आबादी भी कोई थोड़ी नहीं। इतनी कि अगर आरटीआई डालकर जानकारी ली जाए तो इलाक़े की ज़मीन पर आबादी का घनत्व वह रिकॉर्ड बना लेगा कि दूर-दूर तक और अगले कई ज़मानों तक कोई उसे छू भी न सके।
वैसे तो मीर अनीस के मकान से महज़ दो सौ मीटर की दूरी पर एक कूड़ाघर बनवाया ज़रूर गया है मगर अकसर वह कूड़ाघर अपने गिर्द जमा होने वाले कूड़े के अंबार में गुम होता नज़र आता है। बाक़ी रही-सही कसर मीर अनीस के मकान और कूड़ाघर के बीच बहते सरकटे नाले से पूरी हो जाती है जिसकी दुर्गन्ध से शायद यहां के रहने वाले तो राज़ी हो गए हैं मगर मीर अनीस के मकान और मक़बरे की ज़ियारत करने वाले और उनपर शोध करने वाले रिसर्चर्स ज़रूर यह ग़म लेकर यहां से जाते होंगे कि लखनऊ से वाबस्ता जिस हस्ती को दुनिया सिरआंखों पर उठाती है, वह अपने ही शहर में अनदेखी का शिकार है।
जो मीर अनीस कहा करते थे-
तमाम उम्र इसी एहतियात में गुज़री
कि आशियां किसी शाख़-ए-चमन पे बार न हो
आज उसी कूचा-ए-मीर अनीस के दर्द को दवा की तलाश है।
समीना खान