एक अध्ययन से पता चला है कि जो बच्चे खाने में नखरा करते हैं यानी फ़िज़ी ईटिंग की समस्या से ग्रस्त होते हैं उनके मस्तिष्क की संरचना सामान्य बच्चों की तुलना में भिन्न होती है।इस स्थिति को औपचारिक रूप से 2013 में एक बीमारी के रूप में मान्यता दी गई थी। इस स्थिति से पीड़ित लोग कुछ कुछ प्रकार के खाद्य पदार्थों से बचते हैं या भोजन के सेवन के मामले में खुद को इस हद तक सीमित कर लेते हैं कि उनके शरीर की ज़रूरतें पूरी नहीं हो पाती हैं, जिसका उनके शारीरिक और मनोवैज्ञानिक स्वास्थ्य पर प्रभाव पड़ता है।
एबरडीन विश्वविद्यालय में शोधफेलो और मुख्य लेखक डॉ. मिशेल सैडर ने कहा- “कई लोग अपने जीवन में कभी न कभी खाने में नखरे करते हैं, जबकि ARFID से पीड़ित व्यक्ति अपने अव्यवस्थित खाने के कारण गंभीर स्वास्थ्य और मनोवैज्ञानिक परिणामों का अनुभव करते हैं।”
एक ज़माने से परहेज़ या प्रतिबंधात्मक भोजन सेवन विकार वाले बच्चों को केवल “खाने में नखरेबाज़” कहकर इस समस्या को खारिज किया जाता रहा है।
एबरडीन विश्वविद्यालय के नेतृत्व में किया गया यह शोध अपनी तरह का पहला है जिसमें अवॉइडेंट/रेस्ट्रिक्टिव फूड इनटेक डिसऑर्डर (avoidant/restrictive food intake disorder) वाले बच्चों के मस्तिष्क की न्यूरोइमेजिंग का उपयोग किया गया।
शोध से पता चला है कि जो बच्चे ‘फ़िज़ी ईटिंग’ से पीड़ित हैं, उनके मस्तिष्क की संरचना अलग-अलग होती है। रिपोर्ट के अनुसार इस स्थिति का सामना करने वालों की दरें वैश्विक आबादी में 0.3%-17.9% के बीच भिन्नता लिए हुए पायी गई हैं।
अध्ययन में नीदरलैंड के 10 वर्ष की आयु के 1977 बच्चों के मस्तिष्क की स्कैन द्वारा जांच की गई। इनमें से 121 बच्चों (6 प्रतिशत) में एआरएफआईडी के लक्षण मिले। अध्ययन में पाया गया कि ऐसे लक्षण वाले बच्चों के मस्तिष्क की बाहरी परत बिना लक्षण वाले बच्चों की तुलना में अधिक मोटी थी।
इसका प्रभाव शारीरिक स्वास्थ्य से परे भी होता है, जो अक्सर सामाजिक संबंधों और गतिविधियों में बाधा डालता है। उदाहरण के लिए ARFID वाले व्यक्ति सामाजिक संरचना में खाने, पारिवारिक भोजन में भाग लेने या दैनिक कामकाज के लिए पर्याप्त ऊर्जा स्तर बनाए रखने के लिए संघर्ष करना पड़ता है। विकार वाले बच्चे महत्वपूर्ण विकासात्मक मील के पत्थर को पूरा करने में विफल हो सकते हैं, और वयस्कों को गंभीर पोषण संबंधी कमियों का अनुभव हो सकता है।