लीची को एक बेहद मीठा और गुणकारी फल माना जाता है. लेकिन बिहार में यही लीची दो महीने से लेकर पंद्रह साल तक के बच्चों के लिए कथित रूप से जानलेवा साबित हो रही है.
राज्य के 12 जिलों में इस वजह से होने वाली एक्यूट इंसेफ्लाइटिस सिन्ड्रोम (एईएम) के चलते 100 से ज्यादा बच्चों की मौत हो गई है. स्थानीय भाषा में इसे चमकी बुखार कहा जा रहा है. केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन ने रविवार को सबसे प्रभावित मुजफ्परपुर जिले के अस्पतालों का दौरा किया.
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने इस बीमारी से मारे गए बच्चों के परिजनों को मुख्यमंत्री राहत कोष से चार-चार लाख रुपये मुआवजा देने का एलान किया है. विशेषज्ञों ने महामारी बनती इस बीमारी के लिए मुजफ्फपुर में पैदा होने वाली लीची को जिम्मेदार ठहराया है. लेकिन स्वास्थ्य विशेषज्ञों में इस पर आम राय नहीं है. इस बीमारी को देखते हुए पड़ोसी झारखंड में भी हाई अलर्ट जारी कर दिया गया है.
इस बुखार का सबसे ज्यादा असर लीची का कटोरा कहे जाने वाले मुजफ्फरपुर में सामने आया है. केंद्रीय गृह मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक बिहार में 2017 में तीन लाख मीट्रिक टन लीची की पैदावर हुई थी. पूरे देश को लीची की ज्यादातर सप्लाई इसी इलाके से की जाती है. अकेले इसी जिले के श्रीकृष्णा मेडिकल कॉलेज अस्पताल और केजरीवाल अस्पताल में लगभग 80 बच्चों की मौत हो चुकी है. इसके लक्षणों में तेज बुखार के अलावा उल्टी, दौरे पड़ना और बेहोश होना शामिल है. अस्पतालों में लगातार बढ़ती इन मौतों ने बिहार में स्वास्थ्य सेवाओं की भी पोल खोल दी है.
राज्य की नीतीश कुमार सरकार ने बीते सप्ताह ही एक सर्कुलर जारी कर अभिभावकों को खाली पेट बच्चों को लीची नहीं खिलाने की सलाह दी थी. स्वास्थ्य विभाग ने भी कहा है कि बच्चों को कच्ची या अधपकी लीची नहीं खाने देनी चाहिए. विशेषज्ञों का कहना है कि लीची में मौजूद कुछ केमिकल 15 साल से कम उम्र के बच्चों के दिमाग में सूजन बढ़ा देते हैं. लीची के अभियुक्त बनने से उसकी कीमतें तेजी से गिरी हैं. इससे उन हजारों परिवारों को बच्चों पर भी असर पड़ रहा है जो आजीविका के लिए लीची की खेती पर ही निर्भर हैं.
दरअसल, इलाके में मई और जून के महीने में लीची पकने लगती है. इस दौरान खासकर लीची की खेती करने वाले परिवारों के बच्चे बागानों में घूमते समय सुबह से ही लीची खाने लगते हैं. इसी से लीची खाने से बीमारी फैलने की थ्योरी को बल मिला है. बावजूद इसके कुछ सवालों के जवाब अब तक नहीं मिल सके हैं. मिसाल के तौर पर 20111 में मुजफ्फरपुर में पहली बार इस बीमारी का प्रकोप सामने आया था. तब छह महीने के बच्चों की भी मौत हो गई थी. इस सवाल का भी जवाब नहीं मिल सका है कि एक ही परिवार के कुछ बच्चों को तो यह बीमारी हो जाती है लेकिन कुछ पर इसका कोई असर नहीं होता.