अपमान और घृणा सोशल मीडिया पर बिखरी दिखती है. यहां किसी को ‘ट्रोल’ करना या होना मुख्यधारा का हिस्सा बन गया है. तो क्या हमें और सहानुभूति दिखाने की जरूरत है? शायद नहीं.
ट्विटर और फेसबुक जैसे प्लेटफॉर्म पर किसी का अपमान करना या किसी को ट्रोल करना अब आम हो गया है. गुमनाम से यूजर दूसरों के पोस्ट पर ऐसी कड़वी कड़वी बातें लिखते हैं कि पढ़ कर लगता है कि सब लोग बेदर्द होते जा रहे हैं और हमदर्दी नाम की चीज तो जैसे दुनिया में बची ही नहीं है. लेकिन क्या वाकई लोगों में नफरत बढ़ रही है? या फिर ऐसा है कि समाज में हमेशा से मौजूद रही ‘ऑफलाइन’ बेदर्दी को अब ऑनलाइन सोशल नेटवर्कों में जगह मिल गई है? अमेरिका की इंडियाना यूनिवर्सिटी में कॉग्निटिव साइंटिस्ट फ्रित्स ब्राइटहाउप्ट इसे एक संभावना मानते हैं. लेकिन वे कहते हैं कि “मौखिक लापरवाही और क्रूरता बढ़ रही है.”
2011 की अमेरिका में कराई गई एक स्टडी में बहुत बड़े पैमाने पर डाटा का विश्लेषण किया गया. स्टडी में 1979 से लेकर 2009 के बीच छात्रों में सहानुभूति के विकास पर नजर डाली गई. यह पाया गया कि इनमें हमदर्दी का स्तर नाटकीय रूप से कम होता गया. खास तौर पर साल 2000 के बाद इसमें बहुत तेजी से गिरावट देखने को मिली.
लेकिन क्या हमदर्दी कम होना वाकई इतनी बुरी बात है? ब्राइटहाउप्ट हमदर्दी को “दूसरे के साथ महसूस करने” के रूप में परिभाषित करते हैं. विशेषज्ञों का मानना है कि किसी और की भावनाओं को खुद भी भावना के उस स्तर पर समझ कर आप हमेशा वैसे कदम नहीं उठाते जो सामाजिक और नैतिक रूप से सही होते हैं.
अपनी किताब “द डार्क साइड ऑफ एमपेथी” में ब्राइटहाउप्ट हमदर्दी से उपजी ऐसी पांच खतरनाक प्रवृत्तियों का जिक्र करते हैं. इनमें से एक है कि इसके कारण व्यक्ति हर चीज को काले-सफेद में देखने लगता है. इससे लोग पूरी दुनिया को या तो दोस्त या फिर सीधे दुश्मन समझ सकते हैं. यानि विषेशज्ञों के अनुसार “हमदर्दी के कारण विवाद खत्म होने के बजाय और भड़क सकते हैं.”
दक्षिणपंथी कट्टरवादियों को ही लें. भले ही वे अपने विरोधी की मौत का स्वागत करते हों लेकिन उनमें भी सहानुभूति होती है. ब्राइटहाउप्ट कहते हैं, “सहानुभूति रखने के कारण कई बार लोगों का ध्रुवीकरण होता है. संकट की स्थिति में हम किसी एक पक्ष का साथ देने का फैसला करते हैं. किसी बात के लिए खुद को एक पक्ष की जगह पर रखते हैं और दूसरे पक्ष को बढ़ा चढ़ा कर बुरा मानते हैं.” वे कहते हैं, “हमदर्दी के कारण लोग कट्टरपंथी बन सकते हैं.”
आजकल बहुत से लोग किसी समुदाय विशेष से लंबे समय तक जुड़े नहीं रहते. परिवार छिन्न भिन्न हो रहे हैं, पुराना सामुदायिक जीवन कहीं ना कहीं बड़े शहरों में बिखर गया है. लेकिन इंसान की मूल प्रवृत्ति अब भी यही है कि वह दूसरों के साथ होना चाहता है. ऐसे में वह सहानुभूति दिखाने के लिए अपने मुद्दे चुनता है.