अमरीकी और इतालवी शोधकर्ताओं ने चूना पत्थर की जांच के बाद महासागरों में कई प्रजातियाँ विलुप्त होने का खुलासा किया है। ये शोध करीब 183 मिलियन वर्ष पहले समुद्री प्रजातियों के बड़े पैमाने पर विलुप्त होने की व्याख्या करता है।
पीएनएएस (PNAS) पत्रिका में प्रकाशित शोध के निष्कर्षों में ऑक्सीजन की कमी और जलवायु परिवर्तन के कारण समुद्रों पर इसके खतरनाक प्रभावों के संबंध में चेतावनी दी गई है।
जुरासिक काल के दौरान, जब इचथियोसॉर और प्लेसियोसॉर जैसे समुद्री सरीसृप पनप रहे थे, आधुनिक दक्षिण अफ्रीका में ज्वालामुखी गतिविधि ने 500,000 वर्षों में अनुमानित 20,500 गीगाटन कार्बन डाइऑक्साइड जारी किया। इससे महासागर गर्म हो गए, जिससे उनमें ऑक्सीजन खत्म हो गई। इसका परिणाम समुद्री प्रजातियों का दम घुटना और बड़े पैमाने पर विलुप्त होना था।
शोध टीम का कहना आज के समय में वायुमंडल में CO2 उत्सर्जन से यह अनुमान लगाना मुश्किल हो जाता है कि अगला सामूहिक विलुप्तीकरण कब हो सकता है या यह कितना गंभीर हो सकता है।
शोधकर्ताओं ने प्राचीन काल के दौरान महासागरों में ऑक्सीजन के स्तर में परिवर्तन का अनुमान लगाया है। इसके लिए उन्होंने ज्वालामुखी विस्फोटों से निकलने वाले रसायनों को अवशोषित करने वाले चूना पत्थर के तलछट का अध्ययन किया।
जॉर्ज मेसन यूनिवर्सिटी में सहायक शोध प्रोफेसर, सह-लेखक मारियानो रेमिरेज़ ने कहा, “यह एक एनालॉग है, लेकिन यह भविष्यवाणी करने के लिए एकदम सही नहीं है कि मानव निर्मित कार्बन उत्सर्जन से महासागरों में भविष्य में ऑक्सीजन की कमी क्या होगी, और इस कमी का समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र और जैव विविधता पर क्या प्रभाव पड़ेगा।”
18वीं और 19वीं शताब्दी में औद्योगिक क्रांति की शुरुआत के बाद से, मानवीय गतिविधियों ने जुरासिक ज्वालामुखी के दौरान उत्सर्जित होने वाले CO2 उत्सर्जन के 12% के बराबर उत्सर्जन किया है।
अध्ययन के दौरान शोधकर्ताओं ने पाया कि प्राचीन विश्व के 8 प्रतिशत महासागरों में ऑक्सीजन पूरी तरह से समाप्त हो गई थी और इसका क्षेत्रफल संयुक्त राज्य अमरीका के आकार से लगभग तीन गुना अधिक था।
इस पड़ताल के आधार पर इन शोधकर्ताओं का मानना है कि महासागरों में ऑक्सीजन की कमी कई प्रजातियों के विलुप्त होने का कारण बनी हैं।