तकनीकी अर्थों में न सही, इसकी और कोई व्याख्या हो नहीं सकती। इस बार भाजपा तो कहीं सीन में नहीं थी। चुनाव मोदी के चेहरे और ‘मोदी की गारंटी’ पर लड़ा गया।
श्रीनिवास, रांची
‘चार सौ पार’ न सही, 350 भी मिल जाते तो इसे ‘मोदी मैजिक’ का चमत्कार कहा जाता। संभव है, कुछ ‘थेथरोलोजिस्ट’ इन नतीजों की भी कोई अनोखी व्याख्या करें; या इस साफ दिखती विफलता के लिए कोई बलि का बकरा भी खोज लें। मगर जिनको ईश्वर पर सचमुच विश्वास है, उनको महसूस होना चाहिए कि ‘श्रीराम’ को लाने वालों को उनका भी आशीर्वाद नहीं मिला।
अयोध्या में राम मंदिर के नाम पर इतना तामझाम किया, उस संसदीय सीट (फैजाबाद) पर इंडिया गठबंधन के सपा उम्मीदवार अवधेश प्रसाद ने भाजपा के लल्लू सिंह को 56,934 वोटों से हराकर यहाँ की संसदीय सीट पर कब्जा कर लिया। बनारस में खुद नरेंद्र मोदी की जीत का अंतर बहुत कम हो गया, जबकि दावा रिकार्ड बनाने का था। ‘चार सौ पार’ का नारा सिर्फ पिट नहीं गया, भाजपा अपने बूते बहुमत का आंकड़ा भी नहीं छू सकी!
मोदी जी को ‘इंडिया गंठबंधन’ नाम से इतनी चिढ़ थी कि उसका पूरा नाम लेने से बचते हुए ‘इंडी’ बोलते थे। यहां तक कि ‘खुशामदी’ चैनल और अखबार भी इंडी ही कहने और छापने लगे।
जाहिर है, मटन- मछली- मंगलसूत्र के बहाने सांप्रदायिक उन्माद फैलाने और ध्रुवीकरण का प्रयास विफल हुआ है। और ऐसा इसलिए नहीं हुआ कि अल्पसंख्यकों, खास कर मुसलिमों ने ‘इंडिया’ के पक्ष में मतदान किया। वे तो हर हाल में यही करते। इससे तो भाजपा को लाभ ही होता है। उसकी हिंदू हितैषी और मुसलिम विरोधी छवि और मजबूत होती है। यह नतीजा, खास कर यूपी का, इस बात का भी सबूत है कि बृहत्तर हिंदू समाज को यह पसंद नहीं आया। उसके लिए आज भी गरीबी, महंगाई और बेरोज़गारी अहम मुद्दे हैं।
हिंदू होने के गर्व का यह मतलब कतई नहीं है कि किसी अन्य धर्म और धार्मिक समुदाय को शत्रु माना जाये। भारत (हिंदू समाज) में उदारता और संकीर्णता के बीच द्वंद्व और संघर्ष नया नहीं है- यह हिंदू बनाम हिंदू टकराव ही है। डॉ लोहिया कहते थे कि जब भी हिंदू समाज पर अनुदार पक्ष हावी होता है, देश कमजोर होता है; और जब उदार पक्ष जीतता है, तो देश मजबूत और समृद्ध होता है।
यह उम्मीद करना बेमानी ही है कि जो व्यक्ति खुद को किसी खास उद्देश्य से ‘परमात्मा’ का भेजा दूत बता चुका है, उसे यह एहसास भी होगा कि इस बार ‘गिरने’ (यानी संकीर्णता) में अति कर गये। कोई महामानव अपनी गलती स्वीकार भी कैसे कर सकता है! वे शायद इस पर चिंतन करें कि नफरत फैलाने में चूक कहां रह गयी।
संस्कृत की एक उक्ति है- विद्या ददाति विनयम। अर्थात विद्या से विनम्रता आती है। हालांकि व्यवहार में ऐसा कम दिखता है। मगर जिसने कायदे से विद्या हासिल नहीं की हो, उससे विनम्र होने की और भी अपेक्षा नहीं की जा सकती। ऊपर से यदि उसे सत्ता मिल जाये, तो उसमें अहंकार हो जाने की लगभग गारंटी रहती है। यह हम प्रत्यक्ष देख रहे हैं। लोकतंत्र में ऐसे अहंकारी का इलाज जनता ही कर सकती है। लगता है, इस बार मुकम्मल इलाज नहीं हो सका! जोर का झटका तो लगा, पर धीरे से।
एक और बात गौरतलब है कि मोदी जी को ‘इंडिया गंठबंधन’ नाम से इतनी चिढ़ थी कि उसका पूरा नाम लेने से बचते हुए ‘इंडी’ बोलते थे। यहां तक कि ‘खुशामदी’ चैनल और अखबार भी इंडी ही कहने और छापने लगे। फिर मोदी जी ‘घमंडिया’ कहने लगे। मगर इन नतीजों से पता चल गया कि ‘घमंडिया’ कौन था! वह घमंड चूर भी हुआ, लेकिन अहंकार इतना बड़ा है कि शायद एहसास भी न हो। हालांकि उनके ऐसे समर्थकों को भी यह महसूस हो रहा होगा, जो अब तक ‘भक्त’ नहीं बन सके हैं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और समाजकर्मी है।)