कामदानी का बहुत बड़ा बाज़ार होने के बावजूद इन कारीगरों के पास इस रोज़गार से कोई सुरक्षा जैसी सुविधा नहीं है। थोक विक्रेता के पास से ये काम बिचवानियों के ज़रिए इन कारीगरों तक आता और जाता है। इसलिए खुद इन्हें भी नहीं पता कि इस काम की क्या क़दर और क़ीमत है। हां! इनसे बात की तो पता चला कि जी तोड़ मेहनत के बाद जो कारीगरी मिलती है उससे घर चलाना मुमकिन नहीं। हर किसी की ये ख़्वाहिश ज़रूर है कि मेहनताना बढ़ जाए मगर इस फ़रियाद की कोई सुनवाई नहीं।
आंचल में तारे टांक देना खुशहाली की दलील हो सकती है मगर आंचल में तारे टांकने वालों की ज़िंदगी पर एक नज़र डालें तो ये किसी नासूर से कम नज़र नहीं आती।
65 बरस की नूरी ने जिस समय दुनिया में आंख खोली थी, उस समय उनकी मां फ़र्दी बनाने का काम करती थीं। ये हुनर उन्हें भी विरासत में मिला। एक से एक बेल बूटों से छपे कपड़े पर उन्हें भी फ़र्दी बनाने में महारत हासिल थी। घुटनों पर आंचल फैलाया और उंगलिया रुपहले तारों से उलझती सुलझती इन छपे बेल बूटों को झिलमिल बनाती आगे बढ़ती जातीं। इस कारीगारी ने नूरी को भी एक सांचे में ढाल दिया था। गोल हो गई पीठ के साथ झुकी हुई गर्दन की मदद से इन सितारों को टांकने के लिए उन्हें ज़्यादा से ज़्यादा वक़्त निकालना होता था। लगातार घुटनों पर ही नज़रें जमाये वह जितना ज़्यादा काम कर सकेंगी उन्हें उतना ही मेहनताना मिलेगा। मगर साथ ये ध्यान भी रखना होगा कि कहीं कपड़ा कट या उलझ न जाए। उसपर कोई गंदगी न लग जाए। नहीं तो भरपाई की रक़म उनकी कमाई से ही कटनी है।
फ़र्दी यानी कामदानी या फिर मुक़ैश कपड़े पर की जाने वाली सुनहरी या फिर रुपहली कारीगरी है। ये फ़ारसी शब्द मुक़य्यशी से बना है। मुक़य्यशी का मतलब होता है सोने या चांदी के तारों की मदद से घुमावदार बनाया हुआ ज़ेवर। या फिर इसकी मिसाल गोखरू से भी दे सकते हैं। इस काम में इस्तेमाल होने वाले सुनहरे या रुपहले तार को मुक़य्यश कहते हैं। ये तार तोला के वज़न से मिलता है और इन कारीगरों का मेहनताना भी इसे तोला के आधार पर तय किया जाता है।
इसके अलावा मुक़य्यश मुग़ल काल के एक किस्म का रेशमी कपड़ा भी है। इसका ज़िक्र बादशाह अकबर के नवरत्नों में से एक अबुल फज़ल द्वारा सोलहवीं सदी में लिखित ग्रन्थ आईन-ए-अकबरी में भी मिलता है।
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