क्या विडंबना है कि एक ओर भारत के पूर्वोत्तर प्रांत असम में स्थानीय हिंदू आबादी जातीय और भाषाई बढ़त बनाए रखने के लिए 40 लाख लोगों को बांग्लादेशी बताकर नागरिकता से वंचित कर दिया जाता है वहीं दूसरी ओर जम्मू-कश्मीर की जातीय, भाषाई और धार्मिक पहचान को समाप्त करने के लिए संविधान की धारा 35 (ए) को समाप्त करने की कोशिशें हो रही है।
एलानिया दोहरी नीति केवल इसलिए अपनाई जा रही हैं कि असम की 35 प्रतिशत और जम्मू-कश्मीर की 68 प्रतिशत मुस्लिम आबादी हिंदू साम्प्रदायिक और वर्तमान भारतीय सरकार की आंखों में कांटे की तरह खटक रही है।
योजना है कि संविधान के इस प्रावधान को खत्म करके भारत के अन्य राज्यों से हिंदू आबादी को कश्मीर में बसाकर स्थानीय कश्मीरी मुसलमानों को अपने ही देश में अल्पसंख्यक मे बदल दिया जाए, वहीं असम में वर्षों से रह रहे बंगाली मुसलमानों को विदेशी करार देकर उन्हें बर्मा के रोहिंग्याई मुसलमानों की तरह दरबदर की ठोकरें खाने पर मजबूर करा कर हिंदू आबादी को राजनीतिक और जनसांख्यिकीय सुरक्षा मुहैया कराई जाए।
नेशनल रजिस्टर ऑफ स्टेज़नज़ यानी नागरिकों सूची जो 31 जुलाई को जारी हुई है, उनमें जिन लोगों के नाम शामिल नहीं हैं उनमें भारत के स्वर्गीय राष्ट्रपति फ़ख़रुद्दीन अली अहमद का परिवार, असम के पूर्व मुख्यमंत्री सय्यदा अनवरा तैमूर और उनकी परिवार, विधानसभा के पहले डिप्टी स्पीकर अमीरूद्दीन का परिवार तथा भारतीय सेना, अर्धसैनिक संगठनों और पुलिस के कई उच्च अधिकारी और उनके संबंधी शामिल हैं।
यह अनुमान लगाया जा सकता है कि अगर किसी शक्तिमान व्यक्ति या उसके परिवार को नागरिकता की सूची से निकाल दिया जाता है, तो फिर आम व्यक्ति के साथ क्या होगा। सरकार का कहना है कि यह अब केवल मसौदा सूची है और किसी को भी तुरंत बेदखल नहीं किया जाएगा और इस सूची को चुनौती देने के भी भरपूर अवसर दिए जाएंगे। मगर उन सभी आश्वासनों के बावजूद पूरे प्रदेश में आतंक का माहोल है केंद्रीय और राज्य मंत्री भी भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के सदस्य अपने बयानों के माध्यम से इस मुद्दे को भुना कर चुनाव में हिंदू मतदाताओं को अपने पक्ष मे करने के फिराक में हैं।
क्योंकि आशंका थी कि नागरिकता सूची से बंगाली हिंदू भी खारिज हो सकते हैं, मोदी सरकार 1955 के नागरिकता कानून में संशोधन बिल संसद में पेश कर चुकी है, जो इस समय पारलैामानी समिति के समक्ष है। जिसकी वजह से अफगानिस्तान, पाकिस्तान, बांग्लादेश से आए हुए हिंदू विदेशी शरणार्थीयो को नागरिकता मिल जाएगी। न्याय के दोहरे मानक की इस से बढ़कर क्या उदाहरण हो सकता है।
1978 मे हुए विधानसभा चुनावों में 17 मुस्लिम चुने गए थे। बस फिर क्या था, आसमान सिर पर उठा लिया गया कि असम को ‘इस्लामी राज्य’ में बदलने के लिए बांग्लादेशी मुसलमानों का एक रेला चला आ रहा है। इसी तरह 1979 में साम्प्रदायिक संगठनों और सरकार के दर पर्दा समर्थन आसवन सदियों से बसे बंगाली आबादी के खिलाफ हिंसक और खूनी अभियान चलाया गया। इस से पहले प्रदेश में गैर असामीयो अर्थात हिंदी बोलने वालों के खिलाफ आंदोलन शुरू किया गया था फिर उसका रुख बाद में, विदेशियों और विशेष रूप से बांग्लादेशियों के खिलाफ बदल दिया गया।
बाद में इसे आरएसएस और अन्य सांप्रदायिकों पर एक खूनी विरोधी मुस्लिम आंदोलन में परिवर्तित कर दिया गया। असम का इतिहास गवाह है कि विदेशी और ख़ासकर बांग्लादेशी होने का आरोप लगाकर मुसलमानों का नरसंहार किया गया जिसमें 1983 के नीली और चौलकावा के नरसंहार से रूह कापने वाली घटनाओं को कभी भूलाया नहीं जा सकता जिसमें लगभग तीन हज़ार (गैर सरकारी 10 हजार) लोगों को मात्र छह घंटों में मौत के घाट उतार दिया गया था लेकिन पीड़ितों को आज तक न्याय नहीं मिला।