Lucknow : 21वीं रमजान मौला ए कायनात अली इब्ने अबि तालिब अ0 स0 की शहादत का जुलूस अकीदत और एहतराम के साथ निकला, मोमेनीन सियाह लिबास पहने आंसुओं के सैलाब के दरम्यान मौला की आख़िरी रुक्सत के लिए ज़ार ओ क़तार रो रहे थे, बताते चलें की मौला इमाम अली के ताबूत में शिरकत करने के लिए सिर्फ लखनऊ ही नहीं बल्कि आस पास शहर व क़स्बे से मोमेनीन यहाँ आते हैं.
रास्ते में याली मौला और हैदर मौला की सदाओं से माहौल गमगीन हो उठा। अकीदतमंद अमीरउल मेनीन हजरत अली अलैहिस्सलाम के ताबूत को आगे बढ़चढ़ कर बोसा दे रहे थे।
हजरत अली की शहादत का जुलूस से पहले मुख़्तसर मजलिस हुवी मजलिस के बाद शहर की मातमी अंजुमने नौहाख्वानी और सीनाजनी करते हुए चले। इनमें मर्द ख्वातिनो के साथ साथ नन्हे नही बच्चे हाय अली अ0.स0, हाय अली अ0.स0 की सदा बुलंद करते नज़र आ रहे थे.
हजरत अली अलैहिस्सलाम के ताबूत की ज़ियारत करने के लिए मोमेनीन रस्ते की गलियोँ और अपने घरों की छत से भी जियारत महवे गिरया हैं ।
बताते चले की इस ताबूत को हसन मिर्ज़ा के ख़ानदान की महिलाएं मातम करती सीना ज़नी करती हुवी मर्दो को सौंपती हैं गौरतलब है कि ताबूत इमाम अली अस को .उन्नीस रमजान की सुबह से मर्दों की ज़ियारत करने की व्यवस्था की गई थी। 20 रमजान को 11 बजे से सिर्फ महिलाओं के लिए ज़ियारत करने का इंतजाम किया जाता है, जो 21 रमजान की सुबह तक जारी रहता है। इसके बाद यहां अलविदाई मजलिस होती है, फिर महिलाएं ताबूत को रौजे से निकाल कर मर्दों के सुपुर्द कर देती हैं। यह ताबूत जुलूस की शक्ल में विभिन्न रास्तों से गुजरता हुआ कर्बला तालकटोरा जाता है। वहां इसे बड़ी अकीदत के साथ दफन किया जाता है।
हजरत अली अलैहिस्सलाम के ताबूत का किया है इतिहास
144 साल पूर्व यानी 21 रमजान साल 1870 में हसन मिर्जा ने मौलवीगंज स्थित रस्सी बटान से हजरत अली अलैहिस्सलाम की शहादत की याद में ताबूत का जुलूस निकालना शुरू किया, जो बड़ा मकबूल हुआ। साल 1873 से उन्होंने ताबूत को रुस्तम नगर स्थित अपनी ससुराल से उठाना शुरू किया।
पांच मोहर्रम साल 1930 को हसन मिर्जा का निधन हो गया। इसी साल शबीह नजफ की बुनियाद भी डाली गई। हसन मिर्जा के निधन के बाद यह ताबूत उठाने का कार्य उनके दामाद अफजल हुसैन ने 1930 से 1945 तक बखूबी अंजाम दिया।
1946 से अब तक हसन मिर्जा के घराने के लोग लाखों अकीदतमंदों के साथ ताबूत उठाते रहे हैं। साल 1873 में यह ताबूत का जुलूस रूस्तम नगर, कश्मीरी मोहल्ला, पुल गुलाम हुसैन, महमूद नगर, चावल वाली गली, नक्खास चौराहा, बिल्लौचपुरा, हैदरगंज और बुलाकी अडडा होते हुए कर्बला तालकटोरा जाता था। 1969 में लखनऊ में शिया-सुन्नी फसाद होने के कारण इस ताबूत के जुलूस पर सरकार ने प्रतिबंध लगा दिया। उसके बाद 1974 और 1977 में सरकार ने जुलूस निकालने की अनुमति दी।
1998-99 में एक नये समझौते के अनुसार, अब यह जुलूस रूस्तम नगर, छोटे साहब आलम रोड, कर्बला दियानुतदौला, काजमैन रोड, मंसूर नगर तिराहा, गिरधारी सिंह इंटर कॉलेज, दीन दयाल रोड, बाल्दा अर्शफाबाद, बिल्लौचपुरा चौराहा, हैदरगंज और बुलाकी अड्डा होते हुए कर्बला तालकटोरा जाता है।
पूरे शहर में मनाई गई शहादत
इस ताबूत जुलूस में अल्लाह के आखिरी नबी हजरत मोहम्मद साहब के जानशीन पहले इमाम हजरत अली अलैहिस्सलाम की शहादत पूरे शहर में मनाई गई।
मुस्लिम धर्मगुरुओं के अनुसार यह जुलूस 19वीं रमजान को दामाद-ए-पैगंबर हजरत अली की याद में निकाला जाता है।
इसमें परंपरागत तरीके से सुबह से ही लोग जुलूस में शामिल होते हैं।
इस दौरान मजलिस भी होती है, मजलिस में हजरत अली की शहादत का किस्सा सुनकर माहौल गमगीन हो जाता है।
ऐसा कहा जाता है कि इसके बाद से उनकी याद में 19वीं रमजान से जुलूस और मजलिसों का दौर शुरू होता है।
यह सिलसिला 21वीं रमजान को समापन होता है।
लखनऊ में हजऱत इमाम अली अलैहिस्सलाम कु शहादत के गम में बहुत ही ग़मगीन माहौल में 21वीं रमज़ान का जुलूस निकाला गया।