जैसे जैसे हज का समय क़रीब आ रहा कानों में अल्लाहुम्मा लब्बैक की आवाज़ों का शोर बढ़ता जा रहा है। दिल है कि अपने आल अल्लाह के घर की तरफ़ खिंचा चला जा रहा है। दुनिया के कोने कोने से मुसलमान सरज़मीने वही (दिव्य आवाज) पर आएंगे, एक जैसे बिना सिला वस्त्र धारण करके अपने सभी मतभेद भुलाकर एकता का संदेश देते हुए एक ही स्वर में अल्लाहुम्मा लब्बैक की सदा बुलंद करेंगे।
लेकिन जब सभी मुसलमान अल्लाह के घर का तवाफ़ कर रहे होंगें उसी समय दुनिया के एक कोने पर कुछ ऐसे मुसलमान देश के नागरिक भी होंगे जो वहाबी आले सऊद द्वारा हज का राजनीतिकरण कर देने के कारण इस वाजिब को अदा नहीं कर सकेंगे, और यमन, क़तर, लीबिया, सीरिया, जैसे मुसलमान हज के मौसम में अपना दिल मसोस कर रह जाएंगे। इन मुसलमानों पर हज के प्रतिबंध से हज़ार साल पुरानी उस दास्तान की याद ताज़ा हो जाती है कि जब स्वंयभू मुसलमानों के ख़लीफ़ा यज़ीद के गुर्गों ने पैग़म्बर के छोटे नवासे इमाम हुसैन (अ) को हज करने से रोक दिया, और जिस स्थान को अल्लाह ने अमन और शांति का स्थान बनाया था, वहां पर यज़ीद के गुर्गे एहराम (हज के विशेष वस्त्र) में हथियार छुपाए इमाम हुसैन की हत्या के फिराक़ में थे।
आज हज़ार साल बाद इतिहास ख़ुद को दोहरा रहा है, सच है कि इतिहास के यज़ीद और आज की वहाबियत में कोई अंतर नहीं है, कल का यज़ीद हुसैन को हज के दिनों में अल्लाह के घर से दूर जाने पर मजबूर कर रहा था और आज की वहाबियत, आले सऊद कई देशों के मुसलमानों पर हज में आने पर पाबंदी लगा रखी है।