रियाज़ में (फ़ार्स) खाड़ी सहयोग परिषद (जीसीसी) के सदस्य देशों का 39वां शिखर सम्मेलन ऐसी स्थिति में हो रहा है कि जब सऊदी अरब, बहरैन, यूएई और मिस्र ने जून 2017 से क़तर की घेराबंदी रखी है।
क़तर के अमीर शेख़ तमीम बिन हमद अल-सानी इस सम्मेलन में भाग नहीं ले रहे हैं। हालांकि सऊदी किंग सलमान ने उन्हें सम्मेलन में भाग लेने के लिए आमतंत्रित किया था।
क़तर के अमीर ने किंग सलमान के निमंत्रण को ठुकरा दिया है और अपनी जगह विदेश मंत्री सुल्तान बिन साद अल-मुरैख़ी को रियाज़ भेजा है।
बहरैन के विदेश मंत्री शेख़ ख़ालिद बिन अहमद अल-ख़लीफ़ा ने शेख़ तमीम के फ़ैसले की आलोचना करते हुए कहा है कि क़तर के अमीर को किंग सलमान का निमंत्रण स्वीकार करना चाहिए था और सम्मेलन में भाग लेना चाहिए था।
सम्मेलन का क़तर संकट पर क्या प्रभाव पड़ेगा, इस बारे में अभी निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता इसलिए कि फ़ार्स खाड़ी के अरब देशों का यह संगठन अप्रासंगिक होकर रह गया है।
मध्यपूर्व में उत्पन्न संकटों का समाधान निकालने और ख़ुद अपने सदस्य देशों के संबंधों में उत्पन्न होने वाले तनावों को कम करने में इस संगठन ने कोई भूमिका नहीं निभाई है।
इस संगठन पर सऊदी अरब का वर्चस्व है, जिससे संगठन के कुछ सदस्य देश असहज महसूस करते हैं और सऊदी अरब के वर्चस्व से आज़ाद होना चाहते हैं।
(फ़ार्स) खाड़ी सहयोग परिषद एक राजनीतिक एवं आर्थिक संगठन है, जिसकी स्थापना 1981 में हुई थी। इसके सदस्य देशों में बहरैन, कुवैत, ओमान, क़तर, सऊदी अरब और यूएई हैं।
विशेषज्ञों का मानना है कि अपनी स्थापना के बाद से ही यह संगठन एक क्षेत्रीय शक्ति के रूप में सऊदी अरब के हाथों का हथकंडा बना हुआ है।
सूऊदी पत्रकार जमाल ख़ाशुक़जी की हत्या में शामिल होने के आरोपों का सामना कर रह रहे सऊदी क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान की क्षेत्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय नीतियों ने भी सऊदी अरब को न केवल क्षेत्रीय स्तर पर बल्कि विश्व स्तर पर कमज़ोर किया है।
यमन युद्ध समेत मोहम्मद बिन सलमान की नीतियों के कारण, आज सऊदी अरब कई क्षेत्रीय संकटों में फंसा हुआ है और उसे इन संकटों से निकलने का रास्ता नहीं मिल रहा है, यहां तक कि ऐसा प्रतीत होता है कि पश्चिम और अमरीका भी जल्दी ही उसका साथ छोड़कर उसे इस मझदार में अकेला छोड़ देंगे।