इस धरती पर संघर्षों या दमन का दौर हमेशा ही रहा है, जिसने बेशुमार लोगों को लापता कर दिया है। संयुक्त राष्ट्र प्रत्येक वर्ष 30 अगस्त को इन लापता पीड़ितों के अंतर्राष्ट्रीय दिवस के रूप में मनाता है। यह दिन पहली बार 2011 में मनाया गया था।
दुनिया के विभिन्न इलाक़ों में किसी संघर्ष, आपदा या अन्य कारण से लापता होने के मामले में चिंता जताते हुए संयुक्त राष्ट्र महासभा (UNGA) ने एक प्रस्ताव पारित किया। इसमें गायब होने का कारण गिरफ्तारी, हिरासत और अपहरण शामिल था। इसके बाद 30 अगस्त को लापता पीड़ितों का अंतर्राष्ट्रीय दिवस घोषित करने का निर्णय लिया गया। यह दिन पहली बार 2011 में मनाया गया था।
परिवारों और समाजों को यह जानने का अधिकार है कि उनके साथ क्या हुआ। यह दिन लापता होने से रोकने और जिम्मेदार लोगों को न्याय देने के लिए मनाया जाता है।
18 दिसंबर 1992 के घोषणापत्र के अनुसार सभी राज्यों के लिए ये नियम लागू होते हैं। किसी के जबरन गायब होने की दशा में व्यक्ति की सुरक्षा के लिए ये नियम उस समय लागू होता है, जब-
व्यक्तियों को उनकी इच्छा के विरुद्ध गिरफ्तार किया जाता है, हिरासत में लिया जाता है या अपहरण कर लिया जाता है।
सरकार की विभिन्न शाखाओं या स्तरों के अधिकारियों द्वारा, या उनकी ओर से काम करने वाले संगठित समूहों या निजी व्यक्तियों द्वारा, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष, सहमति या समर्थन से उनकी स्वतंत्रता से वंचित कर दिया जाता है।
सरकार की सहमति, जिसके बाद संबंधित व्यक्तियों के भाग्य या ठिकाने का खुलासा करने से इनकार कर दिया जाता है या उनकी स्वतंत्रता से वंचित करने को स्वीकार करने से इनकार कर दिया जाता है।
Hundreds of thousands of people have vanished during conflicts or periods of repression.
Families & societies have the right to know the truth about what happened to them.
Wednesday is the Int'l Day of Victims of Enforced Disappearances. https://t.co/u33HFmu7RV pic.twitter.com/zVXdUvrEL5
— United Nations (@UN) August 29, 2023
इस दिन का मक़सद दुनिया भर में गायब होने वालों की संख्या के बारे में जागरूकता फैलाना है। इन त्रासदियों के बीच लापता लोगों की कमी को समाज में आतंक फैलाने की रणनीति के रूप में उपयोग किया जाता है। इस भय से मुक्त कराने और भविष्य में ऐसे हादसों की पुनरावृत्ति को रोकने के लिए ये दिन मनाया जाता है।
लापता लोगों की कमी से पैदा होने वाली असुरक्षा की भावना केवल गायब लोगों के निकट रिश्तेदारों तक ही सीमित नहीं होती है, बल्कि उनके समुदायों और समाज पर भी इसका प्रभाव आतंक का विस्तार करता है।