शीर्ष अदालत का कहना है कि एफआईआर दर्ज करने से पहले प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत लागू नहीं होते। अदालत का मानना है कि ऐसा करने से आपराधिक कार्यवाही शुरू करने का उद्देश्य ही विफल हो जाएगा।
एफआईआर की वैधता के लिए कोर्ट का कहना है कि केवल यह देखना होगा कि क्या संज्ञेय अपराध हुआ है। अदालत ने स्पष्ट करते हुए कहा कि भले ही तथ्य एक जैसे हों, लेकिन अगर प्रशासनिक कार्रवाई नहीं हुई है, तब भी कोई संज्ञेय अपराध की एफआईआर दर्ज की जा सकती है।
न्यायमूर्ति राजेश बिंदल एवं न्यायमूर्ति एम एम सुंदरेश की बेंच का कहना है कि किसी अपराध का संज्ञान लेकर प्राथमिकी केवल कानून को लागू करती है। इसका किसी अन्य प्राधिकारी द्वारा प्रशासनिक पक्ष में लिए गए निर्णय से कोई लेना-देना नहीं है।
कोर्ट के मुताबिक़, प्रशासनिक कार्रवाई न होने पर भी एफआईआर को वैध माना जाएगा। कोर्ट के अनुसार, दोनों प्रक्रियाओं जिनमे एफआईआर और प्रशासनिक कार्रवाई का दायरा और भूमिका पूरी तरह अलग है, खासकर जब ये अलग-अलग अधिकारियों द्वारा की जाती हैं।
इन दोनों न्यायमूर्ति की पीठ का कहना है कि केवल इसलिए कि तथ्य समान हैं, कोई यह नहीं कह सकता कि वैध प्रशासनिक कार्रवाई के अभाव में कोई भी अपराध जो अन्यथा संज्ञेय है, पंजीकृत नहीं किया जा सकता। आगे पीठ ने यह भी कहा कि उस स्तर पर किसी को केवल दर्ज एफआईआर के आधार पर संज्ञेय अपराध के अस्तित्व को देखना होता है। ऐसे में यह मानते हुए भी कि प्रशासनिक पक्ष की ओर से कोई कार्रवाई नहीं की जा रही है, एफआईआर को बनाए रखने योग्य माना जा सकता है।
ऐसे में अदालत दोनों कार्रवाइयों के दायरे और भूमिका को पूरी तरह से अलग और विशिष्ट मानती है, खासकर तब जब विभिन्न वैधानिक/सार्वजनिक प्राधिकरणों द्वारा की जाती है।
पीठ के अनुसार, भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा पहली जुलाई, 2016 को वाणिज्यिक बैंकों और चुनिंदा वित्तीय संस्थाओं द्वारा धोखाधड़ी– वर्गीकरण और रिपोर्टिंग पर मास्टर निर्देश जारी किए जाने के बाद से ही कार्रवाई शुरू हो गई थी। जिसके तहत दिए गए निर्देशों में बैंकों के लिए एक रूपरेखा प्रदान की गई थी, जिससे धोखाधड़ी का शीघ्र पता लगाने और रिपोर्ट करने में मदद मिल सके। इसके नतीजे में समय पर कार्रवाई मुमकिन हो सके।
सुप्रीम कोर्ट ने बैंकों के साथ की गई धोखाधड़ी गतिविधियों के संबंध में दर्ज एफआईआर के संबंध में विभिन्न हाई कोर्ट द्वारा पारित आदेशों को रद्द कर दिया।
कंपनियों के बैंक खातों को धोखाधड़ी वाला घोषित करते हुए बैंकों ने प्रतिवादियों को प्रभावित करने वाली प्रशासनिक कार्रवाई शुरू की। इस कार्रवाई में महत्वपूर्ण नागरिक परिणाम मास्टर निर्देशों में वर्णित किए गए थे।
इन धोखाधड़ी वाली गतिविधि के संबंध में बैंकों द्वारा प्रतिवादियों के खिलाफ आपराधिक कार्यवाही भी शुरू की। दरअसल मास्टर निर्देशों के अनुसार बैंकों को सामान्य नियम के रूप में कुछ श्रेणियों के मामलों को राज्य पुलिस या सीबीआई को संदर्भित करना आवश्यक है।
इन मास्टर निर्देशों की वैधता और उसके परिणामस्वरूप की गई कार्रवाई को चुनौती देते हुए, प्रतिवादियों ने विभिन्न अधिकार क्षेत्र वाले उच्च न्यायालयों का रुख किया।
इस पर सर्वोच्च न्यायालय का कहना था कि उच्च न्यायालयों द्वारा विवादित आदेशों के माध्यम से, न केवल मास्टर निर्देशों के अनुसरण में शुरू की गई प्रशासनिक कार्रवाइयों को रद्द कर दिया है, बल्कि प्रतिवादियों के खिलाफ दर्ज की गई एफआईआर और उसके बाद होने वाली आपराधिक कार्यवाही को भी रद्द कर दिया है।
आगे शीर्ष अदालत का कहना था कि प्रशासनिक कार्रवाइयों को मुख्य रूप से प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों, विशेष रूप से ऑडी अल्टरेम पार्टम के सिद्धांत का पालन न करने के आधार पर रद्द कर दिया गया था। दरअसल संबंधित प्रतिवादियों को कंपनियों के बैंक खातों को धोखाधड़ी/काली सूची में डालने से पहले सुनवाई का अवसर नहीं दिए जाने की बात सामने आई थी।
प्रतिवादियों के खिलाफ शुरू की गई आपराधिक कार्यवाही को विभिन्न उच्च न्यायालयों ने यह कहकर रद्द कर दिया कि वे बैंक खातों को धोखाधड़ीपूर्ण घोषित करने की प्रशासनिक कार्रवाई का स्वाभाविक परिणाम हैं।
पीठ के मुताबिक़, वह सीबीआई की ओर से दी गई दलील से पूरी तरह सहमत है कि उच्च न्यायालयों ने एफआईआर और उसके बाद की आपराधिक कार्यवाही को रद्द करके अपने अधिकार क्षेत्र का उल्लंघन किया है। जबकि इसे कोई चुनौती नहीं दी गई थी।
सुप्रीम कोर्ट ने आगे कहा कि इसके अलावा, कुछ मामलों में इसे गलत तरीके से रद्द कर दिया गया है, या तो जहां सीबीआई (उच्च न्यायालयों के समक्ष प्रतिवादियों) को सुनवाई का कोई अवसर नहीं दिया गया था, या जहां अपीलकर्ता-सीबीआई को उच्च न्यायालयों के समक्ष पक्ष-प्रतिवादी के रूप में शामिल ही नहीं किया गया था।