साइंस पत्रिका अमरीकन इकोनॉमिक रिव्यू ने गिद्धों की आबादी और मानव स्वास्थ्य से जुड़ा एक हैरान करने वाला शोध प्रकाशित किया है।
शोध के मुताबिक़, भारत में तेजी से कम होती गिद्धों की संख्या का मानव स्वास्थ्य से बड़ा ही गहरा संबंध है। गिद्धों की कमी से पारिस्थितिकी आपदा के हालात बने जिसके परिणामस्वरूप अकाल मौतें सामने आईं।
90 के दशक के बाद जितनी तेजी से गिद्ध विलुप्त हुए हैं उतनी तेजी से भारत में शायद कोई दूसरा जीव गायब हुआ हो। गिद्धों की कमी से पारिस्थितिकी आपदा के हालात और अकाल मौतें सामने आईं।
अध्ययन से पता चला है कि साल 2000 से 2005 के बीच करीब पांच लाख लोगों की असमय मौत इस शोध से जुड़ी हैं। इस संबंध में शोधकर्ता अर्थशास्त्री ईयाल जी. फ्रैंक और अनंत सुदर्शन का कहना है कि गिद्धों के लगभग खत्म होने से भारत में लोगों की मौतों की संख्या बढ़ी है। फ्रैंक और अनंत के मुताबिक़, 90 के दशक के बाद जितनी तेजी से गिद्ध विलुप्त हुए हैं उतनी तेजी से भारत में शायद कोई दूसरा जीव गायब हुआ हो।
शोध बताता है कि भारत में गिद्ध एक प्रमुख प्रजाति है, जो देश के कई पारिस्थितिकी तंत्रों के लिए बेहद जरूरी हैं। ये शिकारी पक्षी न केवल बीमारी ग्रस्त शवों को साफ करते हैं, बल्कि अन्य मैला ढोने वाले जीवों की संख्या को घटाने में भी बड़ी भूमिका निभाते हैं।
शोध बताता है कि जिन इलाकों में गिद्ध कम हुए हैं, उन जगहों पर आवारा कुत्तों की संख्या में इज़ाफ़ा हुआ है। इससे रेबीज का भी खतरा बढ़ा है। दरअसल गिद्धों का समूह एक शव को मात्र 40 मिनट में बिलकुल खत्म कर देता है जबकि इनकी गैरमौजूदगी में शव पूरी तरह खत्म नहीं होते हैं।
शोध से मिली जानकारी में बताया गया है कि पशुओं की दर्द की दवा डिक्लोफेनाक गिद्धों के लिए घातक साबित हुई। साल 1994 में किसानों द्वारा पशुओं को दर्द या सूजन आदि के उपचार के लिए मवेशियों को ‘डिक्लोफेनाक’ दर्दनिवारक दवा देना शुरू किया, लेकिन यह उन गिद्धों के लिए घातक थी जो इन जानवरों को खाते थे। इससे उनके गुर्दे नष्ट हो होने लगे। देखते ही देखते एक दशक के अंदर भारत में गिद्धों की पांच करोड़ से अधिक आबादी घटकर मात्र कुछ हजार तक सिमट गई।