जिनके भरोसे भारत के कई राज्यों की अर्थव्यवस्था का विकास हो रहा था, उनकी लॉकडाउन के दौरान सबसे ज्यादा दुर्गति हुई. जिस शहर को वे अपना समझ रहे थे वहां मिले तिरस्कार व अपमान ने उनके सोचने की दशा-दिशा बदल दी.
जब लॉकडाउन की पीड़ा को बर्दास्त नहीं कर पाए को तो वे सरकारी घोषणाओं को दरकिनार कर जीवन को दांव पर लगा अपने गांव की उम्मीदों की यात्रा पर निकल पड़े. जो पहुंच गए, अपनी माटी पर खड़े हो अब कह रहे हैं, दस पैसा कम कमाएंगे लेकिन परदेस नहीं जाएंगे. अपनों के पास पहुंचने में जितनी परेशानी, जलालत उन्होंने झेली, उसका दर्द वे इस जन्म में शायद ही भुला पाएंगे. लॉकडाउन में भारत के तमाम राज्यों से श्रमिकों का बिहार लौटना जारी है. यह पलायन मजदूरों – कामगारों पर काफी भारी पड़ रहा है.
दो जून की रोटी की तलाश में अपनों को छोड़ परदेस गए इनलोगों ने कभी सोचा नहीं था कि जिंदगी इतनी भयावह होगी. जैसे ही लॉकडाउन हुआ, जीवन की परिभाषा बदल गई. जहां नौकरी कर रहे थे वहां मालिकों का व्यवहार बदल गया. उन्होंने यों ही मरने को छोड़ दिया. न पैसे दिए और न राशन. जो नौकरीपेशा थे या फिर रोज खाने-कमाने वाले, शहर ठप हो जाने से दो वक्त की रोटी के लिए तरस गए.
जो कुछ बचाकर रखा था, राशन-पानी में धीरे-धीरे खत्म होने लगा. जब जीवन पर संकट मंडराने लगा तो इनके समक्ष घर वापसी ही लक्ष्य रह गया.
जब जीवन खतरे में पड़ता दिखाई देता है तो मौत का खौफ कम हो जाता है. शायद इसी कारण देश के अलग-अलग हिस्सों में रहने वाले इन मजदूरों-कामगारों ने अपने गांव-घर का रुख किया. उन्हें यह पता नहीं था कि कैसे और कब घर पहुंचेंगे. वे तो बस इतना जानते थे कि अपने गांव जाना है. इस पराए शहर में भूखों मरने से बेहतर है, घर जाने के रास्ते में मर जाना. किसी ने साइकिल खरीदी तो किसी ने अपने मित्रों के साथ मिलकर जुगाड़ (मोटरयुक्त रिक्शा) खरीदी तो कोई अपने बीवी-बच्चों समेत पैदल ही निकल पड़ा.
बाद में जब श्रमिक ट्रेन चलाई जाने लगी तो जो कुछ पढ़े-लिखे थे उन्होंने सरकारी प्रावधानों के तहत दौड़-धूप कर ट्रेनों में जगह पा ली लेकिन ट्रेन की सवारी के लिए की गई व्यवस्था पर जिन्हें भरोसा न था या फिर काफी प्रयास के बाद भी जिनके लिए नतीजा सिफर रहा वे पैदल ही चल दिए. दिल्ली से करीब 1200 किलोमीटर की दूरी तय कर बेगूसराय जिले के छौड़ाही पहुंचे अमरजीत पासवान कहते हैं, “सुकून है कि घर पहुंच गया. दिल्ली में मजदूरी कर रहा था. जीवन की गाड़ी चल रही थी लेकिन लॉकडाउन के कारण कामकाज बंद हो गया. खाने के लाले पड़ गए. तब पत्नी को फोन किया. जमीन गिरवी रखकर उसने पैसे भेजे. उससे साइकिल खरीदी और किसी तरह घर पहुंचा. अब कमा कर जमीन छुड़ाऊंगा. भले ही दस पैसा कम कमाऊंगा लेकिन अब गांव छोडक़र कहीं नहीं जाऊंगा.”
दिल्ली के चांदनी चौक में दिहाड़ी मजदूर का काम करने वाले सहरसा जिले के नवहट्टा के रामप्रवेश कहते हैं, “वहां रहना मुश्किल हो गया था. गांव के ही अपने साथियों के साथ चंदा कर बीस हजार रुपये जुटाए और एक जुगाड़ गाड़ी खरीदी. शुक्र है यहां तक पहुंच गया. अब जो भी करेंगे हम सब यहीं करेंगे.” 17 दिनों में पुणे से साइकिल से चलकर नवादा जिले के नरहट पहुंचे रणजीत का दर्द भी कुछ वही है. कहते हैं, “कामकाज ठप, पैसे खत्म. लग रहा था यहां रहा तो मौत तय है. सोचा, भूखे मरने से बेहतर है रास्ते में मर जाऊं. यही सोचकर पुणे से चल दिया.
” हैदराबाद में रसोइये का काम कर रहे श्रमिक ट्रेन से भागलपुर पहुंचे फिरोज, अनवर व एजाज कहते हैं, “अब घर में सूखी रोटी खाएंगे लेकिन कहीं बाहर नहीं जाएंगे. हैदराबाद की बिरयानी से घर की नमक-रोटी ही बेहतर है.” रोहतास जिले के डेहरी प्रखंड निवासी विभाष अपने गांव के कई लोगों के साथ मध्यप्रदेश के अनूपपुर जिले में मोजरबियर पावर प्लांट में काम करते थे. लॉकडाउन होते ही कंपनी ने काम से निकाल दिया. खाने के लाले पड़ गए. मकान मालिक ने किराया न मिलने के डर से घर खाली करने को कह दिया. कहते हैं, “लाचार होकर घर लौटने का हमलोगों ने निर्णय किया और साइकिल से यहां आ गए. अब कम कमाएंगे लेकिन घर छोड़ बाहर नहीं जाएंगे.”